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कविता

सड़कें

हरिओम राजोरिया


खर्चे हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं
खेतिहर चूहामार दवा खा रहे हैं
पर ये हैं कि बनती ही जाती हैं लगातार
दिनोंदिन आ रही हैं गाँवों के पास
जो देश रोटी पैदा करने वालों को
रोटी नहीं दे पाया कभी ठीक से
चमचमाती सड़कें दे रहा है उपहार में

कई दशक बीत जाने के बाद
किसी अधिकार के तहत नहीं
ये हासिल हुई हैं एक एहसान की तरह
संकोच के साथ स्वीकार किया जाता इन्हें
पर इन्हें उन्माद की तरह प्रचारित किया गया
मुस्कराए जा रहे हैं प्रधानमंत्री
मुस्कराए जा रहे हैं दुनियाभर के कार निर्माता
आगे-आगे चल रही हैं सड़कें
पीछे-पीछे चले आ रहे हैं मोबाइल और बाइक
एक तरफ से बनती जाती हैं सड़कें
दूसरी तरफ से उखड़ती जाती हैं सड़कें

हरितक्रांति के लिए जरूरी हैं सड़कें
विदेशी कीटनाशकों और खादपानी के लिए
होनी ही चाहिए डामर की सड़कें
अब सड़कों से होते हुए आएँगे टिड्डीदल
सड़कों के लिए पलक-पाँवड़े बिछाएँगे महल
झोंपड़ियाँ तो झोंपड़ियाँ ही रहेंगी
खेत जरा सा और सिकुड़ जाएँगे
पर अभी तक जो पाँव-पाँव चलते रहे
वे नंगे-भूखे क्या सड़क खाएँगे?
सवाल यह नहीं कि किसके लिए सड़कें?
सवाल इतना भर है
किसके कहने पर सड़कें?


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